(ओझल अस्तित्व)
आज आइने में देखकर अक्स अपना।
हमने ये सवाल किया।।
क्या मैं वही अल्हड़-निश्छल-सुकोमल।
सी उन्मुक्त सी फिरने वाली ।।
था देवांगना सा स्वरूप जिसका।
अपने कर्त्तव्य और शर्तों पर जीने वाली।।
है जिजीविषा से भरी हुई।
नित्य नए स्वपन बुनने वाली।।
विलक्षण प्रतिभा की धनी मैं।
हर हृदय प्रफुल्लित करने वाली।।
क्या मैं वही- अल्हड़ - निश्छल ..........
अपने ही प्रतिबिंब में आज खुदको।
खोजने क्यूं निकल पड़ी ।।
व्यथित मन है पूछ रहा।
क्यों रिक्तता से भरा है खुदको।।
ढूंढ उस अदम्य साहस को।
है तुझमें जो भरा हुआ।।
अब तक जितना भी खोया खुदको।
अब अंत कर इस त्याग प्रथा का।।
हे! मंजुल अब बहुत हुआ।
विवश नहीं तू किसी कर्तव्य बोध से।
जग- रचना तू ही करने वाली।।
है इंतजार में तेरे क्षितिज ।
है क्षमताओं का अंबार तुझमें
तू पूर्ण को सम्पूर्ण करने वाली।।
आज आइने में देखकर अक्स अपना।
हमने ये सवाल किया।।
क्या मैं वही अल्हड़-निश्छल-सुकोमल।
सी उन्मुक्त सी फिरने वाली ।।
था देवांगना सा स्वरूप जिसका।
अपने कर्त्तव्य और शर्तों पर जीने वाली।।
है जिजीविषा से भरी हुई।
नित्य नए स्वपन बुनने वाली।।
विलक्षण प्रतिभा की धनी मैं।
हर हृदय प्रफुल्लित करने वाली।।
क्या मैं वही- अल्हड़ - निश्छल ..........
अपने ही प्रतिबिंब में आज खुदको।
खोजने क्यूं निकल पड़ी ।।
व्यथित मन है पूछ रहा।
क्यों रिक्तता से भरा है खुदको।।
ढूंढ उस अदम्य साहस को।
है तुझमें जो भरा हुआ।।
अब तक जितना भी खोया खुदको।
अब अंत कर इस त्याग प्रथा का।।
हे! मंजुल अब बहुत हुआ।
विवश नहीं तू किसी कर्तव्य बोध से।
जग- रचना तू ही करने वाली।।
है इंतजार में तेरे क्षितिज ।
है क्षमताओं का अंबार तुझमें
तू पूर्ण को सम्पूर्ण करने वाली।।
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